Monday 14 August 2017

‘कटुओं से हार गए...’
मेरे गांव के पड़ोस में तीन मुस्लिम बाहुल्य गांव हैं-जय-विजय, ड्यूहारी और अमानाबाद। उन गांवों के होने की मौजूदगी मुझे आज तक पता नहीं चली। इतने शांत और सहज हैं वहां के लोग। वैसे बचपन में ड्यूहारी को लेकर मेरे मन में एक अजीब सा डर बैठा दिया गया था। वही डर जो हिन्दुओं के बच्चों में पता नहीं कहां-कहां से घर कर जाता है, कि मुस्लिम बहुत कट्टर होते हैं और कसाई भी उसी सम्प्रदाय से होते हैं। घर में, पड़ोस में और बकरीद जैसे त्योहारों पर जानवरों को कटते हुए देखना और इस क्रिया में ही आए दिन शरीक होने के कारण जिन स्थितियों में उनकी परवरिश होती है उनसे वे पैदाइशी ‘हिंसक’ और ‘कट्टर’ हो जाते हैं। यह मेरे और मेरे जैसे बच्चों के मन के कोने में बचपने में भरा हुआ भयानक डर था और है। हालांकि ‘जय-विजय’ के बच्चों के साथ हम क्रिकेट खेलते थे और गाली-गलौच के साथ बेइमानी कर अक्सर जीतने की जुगत करते रहते। उनसे हारने की शर्मिंदगी सही नहीं जाती थी और गांव के ‘बड़ों’ और पड़ोसी गांव वालों के तानें सुनना तो मुश्किल हो जाता था। ‘कटुओं से हार गए...’ यह वाक्य महज पराजय का बोध नहीं कराता है। दरअसल यह हमारे सम्पूर्ण संकीर्ण मानसिक विकास का प्रतिनिधि वाक्य है जो हमें यह बताता है कि हम पड़ोसी गांव से नहीं बल्कि पाकिस्तान से हारे हैं। यही वाक्य हमें बताता है कि मुस्लिमों से कितने कमजोर हैं, एक दिन जब वे हमसे लड़ने आएंगे तो हम उनके सामने टिक नहीं पाएंगे। यही वाक्य हमें बताता है कि एक दिन वे हमसे ‘श्रेष्ठ’ हो जाएंगे और हम उनके ‘अधीन’ होंगे और यह भी कि ‘उनसे’ फासला रखो नहीं तो वे आपके भीतर तक घुस जाएंगे। यही वह वाक्य था जिसमें बंटवारे का बीज तत्व निहित था। यही वह वाक्य है जिसने हिन्दुओं के जेहन में इस हिंसक सोच को जिंदा रखा है कि आज नहीं चेते तो अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाओगे। भारतीय जनता पार्टी इन्हीं तीन शब्दों की पैदाइश है। यही वाक्य है जिसने प्रवीण तोगड़िया, साध्वी प्राची, साक्षी महराज, गिरिराज सिंह और योगी आदित्यानाथ जैसों को डराए हुए लोगों के बीच ‘स्थापित’ किया। यही एक वाक्य है जिसने अब तक हुए हजारों साम्प्रदायिक दंगों में लाखों जाने ले लीं। यही वह घृणित वाक्य है जो बताता है मुस्लिम लड़कियों से बलात्कार करने पर हजारों ‘पाप’ धुल जाते हैं। यही वह वाक्य है जो हमारे भीतर हिंसा और नफरत के बीज रोपता है और हमें अपनों से प्रेम करने के लिए रोकता है।
खैर, सोमवार और गुरुवार को लगने वाली जिस मंडी से मैं सब्जी खरीदने बाजार जाता था उसके ठीक पहले ड्यूहारी से होकर गुजरना पड़ता है। ड्यूहारी में एक मदरसा है और उसमें बड़ी संख्या में बच्चे पढ़ते हैं। उस मदरसे को लेकर मेरे अंदर एक अजीब सा डर बैठा था। शाम को बाजार से आते-जाते वक्त मैं अपनी साइकिल की स्पीड आंख मूंद कर बढ़ा देता था। मुझे लगता था कोई मदरसे से मेरा पीछा कर रहा है। मदरसे के मेस से आने वाली खाने की खुशबू मुझे मीट-मछली वाली लगती थी जबकि मैं शाकाहारी हूं। एक रोज बाजार से लौटते वक्त ठीक मदरसे के पास मेरी साइकिल की चेन उतर गई। वैसे तो वहां बाहर बच्चे जल्दी दिखाई नहीं देते थे लेकिन उस दिन आठ-दस बच्चे पंजे से ऊपर चढे़ पायजामा, कुर्ता और टोपी में क्रिकेट खेल रहे थे। उन्हें देखकर मेरी हालत खराब हो गई। साइकिल की चेन बुरी तरह से उलझ गई थी। काफी देर तक मैं परेशान रहा लेकिन चेन नहीं चढ़ी। कुछ देर बाद मदरसे से एक शिक्षक बाहर निकले उन्होंने मुझे परेशान देखा तो खेल रहे कुछ बच्चों को मेरी मदद करने के लिए कहा। वे आए और थोड़ी मशक्कत के बाद चेन चढ़ा दिए। उनमें से एक बच्चे ने मुझसे पूछा क्रिकेट खेलोगे। मैं लेट होने का बहाना बनाकर वहां से उटपटांग सोचते हुए निकल लिया। लेकिन उसके बाद से मुझे ड्यूहारी से गुजरने में कभी डर नहीं लगा। मदरसे से आती हुई खाने की खुशबू पर भी कभी ध्यान नहीं गया।
इन दिनों बताया जाता है कि कई मदरसों में मुस्लिम लड़कों को ‘प्रशिक्षित’ किया जा रहा है। उन मदरसों को बाहर से काफी ‘मदद’ मिल रही। तकरीरों में लोगों को उकसाया जाता है। यह एक नए तरह का उन्माद है और समुदाय विशेष में डर पैदा कर उन्हें लामबंद करने की कोशिश हो रही है। यह बहुत ही भयावह है। आखिर मेरे बाल मन में मदरसे को लेकर जो अंजाना सा डर था वह कहां से आया? जबकि उस मदरसे और उन मुस्लिम बाहुल्य गांवों में आज तक मैंने छिटपुट विवाद की भी कोई खबर नहीं सुनी इसके बावजूद मेरे जेहन में उन ग्रामीणों की छवि बहुत ही खतरनाक बनी हुई थी। यह गंभीर मसला है कि आखिर हमारे भीतर इतना डर कहां से भरा जा रहा है और इसका फायदा कहां-कहां लिया जा रहा है।
अजीब बात है हम उनके प्रति दुर्भावना रखते हैं और अपेक्षा करते हैं कि वे हमारे सामने याचना की मुद्रा में रहें। हमें बर्दाश्त नहीं है कि वे हमारे शिक्षक बनें, किसी सम्मानित ओेहदे पर जाएं और भले ही भूखों मर जाएं पर देश के प्रति समर्पित रहें। गजब की विडम्बना है भाई। मुस्लिाम समुदाय की एक बड़ी आबादी की जीविका खाड़ी देशों में कमाई से चल रही है, लेकिन यहां वे उनके समर्थन में कुछ कह देंगे तो उनकी सौ पुस्तों को गरियाते हुए उनकी फ्रेमिंग करने में पीछे नहीं रहेंगे। मथुरा में इतनी भयावह घटना हो जाती है और कुछ दिनों में सब ‘सामान्य’ हो जात है, मान लीजिए यह घटना किसी मदरसे की होती तो?
मुझे नहीं पता कि जय-विजय, ड्यूहारी और अमानाबाद के कितने प्रतिशत ग्रामीण सराकरी विभाग में काम करते हैं (फिलहाल मैं व्यक्तिगत तौर पर किसी को नहीं जानता हूं) , कितने परिवारों की निर्भरता विदेशों की कमाई पर आश्रित है और कितने खेती कर अपनी जीविका चला रहे हैं? पर एक बात है उनकी जिन्दगी जैसे भी कट रही है और तमाम सामाजिक उपेक्षाओं के बावजूद वे अपने काम में रमे हुए हैं। पर धैर्य तो हर किसी का जवाब दे जाता है। आखिर इतनी नफरत कहां से आ रही है यार! भाई, प्रेम करो जिंदगी शहद हो जाएगी।

हे योगी...


भाजपइयों का अतिवाद दक्षिण के नायकों के मानिंद है, मसलन संसद में पहला कदम प्रधान सेवक मोदी ने सीढ़ियों पर माथा टेक कर रखा और दुनिया भर की मीडिया की सुर्खियों में विश्व विजेता के रूप में सामने आए. विदेशों के ताबड़तोड़ दौरों से विदेश मंत्री का अस्तित्व ही खत्म कर दिए. मोदी... मोदी... मोदी... के नारों से ब्रहृमांड गूंज उठा. अचानक से नोेटबंदी लागू कर जैसे कालाधन का नामोनिशान मिटा दिया हो, जिसे लागू करने के लिए मनमोहन सिंह जैसा अर्थशास्त्री सालों तक सिर्फ विचार करता रहा. देश को एक करसूत्र में बांधने वाला जीएसटी भी अभूतपूर्व रहा. व्यापारियों के अभी तक कुछ पल्ले नहीं पड़ा है. कैशलेस व्यवस्था का हाल तो आप लोग देख ही रहे हैं. पता नहीं किसानों की आय दोगुनी करने की बात कही गई थी या उनकी आत्महत्याओं की. पलायन रोकने के लिए नौजवानों को रोजगार दिया जा रहा था, ये और बात है कि नोटबंदी ने हजारों उद्योगों पर ताला जड़ दिया और रोजगार के सिलसिले में पलायन कर गए बड़ी तादात में युवाओं को घर लौटना पड़ा. विनोद दुआ के शब्दों हमारे प्रधान सेवक किसी जादूगर की तरह हैं, ताश के पत्तों की तरह हाथ दो बार फेंटते हैं और चमत्कार हो जाता है.
कुछ ऐसे ही चमत्कारी हैं प्रधान सेवक के दूसरे वर्जन योगी आदित्यनाथ, बोले तो गरीबों के मसीहा टाइप. चार बार लगातार गोरखपुर से बतौर सांसद संप्रदाय विशेष के खिलाफ सार्वजनिक मंचों से गरजते रहे. गो और हिन्दूओं की रक्षा के नाम पर हिन्दू युवा वाहिनी नामक सेना का गठन कर हजारों नौवजवानों को गुमराह किया; उनमें नफरत के बीज बोए, उन्ही को गोरक्षा के नाम पर अब देशभर में हत्या करने की खुली छूट मिल गई है; योगी ने जब अप्रत्याशित रूप से उत्तर प्रदेश की कमान संभाली तो गोरखपुर में बतौर मुख्यमंत्री पहली सभा को संबोधित करते हुए कहा कि प्रदेश के चोर, गुंडा, माफिया, हत्यारे या तो सुधर जाएं या प्रदेश छोड़ कर चले जाएं नहीं तो उनके लिए दो ही जगह बचेगी. लगा कि प्रदेश में अब कानून व्यवस्था चुस्त हो जाएगी और अपराध जैसा शब्द ही लोग भूल जाएंगे. पर उसके बाद हत्याओं का जो सिलसिला शुरू हुआ उससे आप लोग बखूबी वाकिफ है. उसके बाद योगी सरकार ने एंटी रोमियो स्क्वाड का गठन किया. जिसकी आड़ में उनके गुर्गों ने कितने युगलों के साथ बेशर्मी की हदें पार कर दीं. फिर योगी सरकार ने प्रदेश की सड़कों को गड्ढा मुक्त करने के लिए महकमे को 21 जून तक का वक्त दिया पर यूपी की सड़कों की दशा पहले से और बदतर हो चुकी है. योगी सरकार की यह सब घोषणाएं बिल्कुल किसी चमत्कार जैसी रहीं. जनता में ऐसी सनसनी पैदा हुई कि लगा धरती से दानवों का अंत करने के लिए ईश्वर ने जन्म ले लिया है. योगी सरकार के रंग का असर ऐसा पड़ा कि हेलमेट की जगह गेरुआ अंगोछे ने ले लिया और गाड़ी के नेमप्लेट पर योगी सेवक चस्पा हो गया. ऐसा करने से राष्ट्रवादियों को कुछ भी करने की छूट मिल गई.
बतौर सांसद योगी आदित्यनाथ ने पूर्वांचल में इंसेफेलाइटिस से हो रही मौतों को खूब भुनाया. जुलूस धरना—प्रदर्शन करने से लेकर सदन तक में इस मुदृे पर घड़ियाली आंसू बहाए. सरकारों पर संवेदनहीनता का आरोप लगाते हुए निरंतर कठघरे में खड़ा करते रहे. और अब जबकि खुद सत्तासीन हैं, बावजूद इसके बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 68 लाख के बकाए के कारण कंपनी आॅक्सीजन की सप्लाई रोक देती है और 60 बच्चों की मौत हो जाती है. योगी सरकार इस घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेने के बजाए इसे साधारण घटना बता रही है. उनके मंत्री के अनुसार अगस्त में बच्चों की मौतें होती ही होती हैं. इससे शर्मनाक और अमानवीय कुछ भी नहीं हो सकता है. जिन बच्चों की मौत पर पूरा देश रो रहा है उन पर सरकार के मंत्री संवेदना जताने और उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेने की बजाए ऐसे वाहियात बयान दे रहे हैं.
यह समय बेहद खतरनाक है. झूठ को इतनी सच्चाई से सामने लाया जा रहा है कि वो सच लगे. इतिहास से खिलवाड़ किया जा रहा है. नेहरू का चरित्र हनन कर हेडगेवार और गोडसे को स्थापित किया जा रहा है. जवान और शहीदों के नाम पर राजनीति को चमकाया जा रहा है. राष्ट्रभक्ति के नाम पर लोगों को उन्मादी बनाया जा रहा है. विरोध करने वालों की हत्या की जा रही है. मीडिया सरकारों की अनुमति से खबरों को प्रसारित कर रही है. क्या दिखाना है और क्या हटाना है यह संपादक नहीं सरकार तय कर रही है. सोशल मीडिया पर गिरोह सक्रिय है. भोली—भाली जनता को मोदी चालिसा का पाठ पढ़ाया जा रहा है. राष्ट्रवादी नायक अक्षय कुमार को रुस्तम जैसी घटिया फिल्म के लिए नेशनल अवार्ड दिया जा रहा है और दंगल जैसी मिल्म बनाने वाले आमिर खान को देशद्रोही बताया जा रहा है. यह देश अब तक के सबसे खतरनाक समय से गुजर रहा है.

Wednesday 25 May 2016

जीवन जो मैंने चुना नहीं...

स्कन्द
बहुत खुशनसीब होते हैं वो ख्वाहिशें जिनके पूरा होने का इंतजार करती हैं। कुछ बनने की, कुछ करने की... कुछ गुनने की ख्वाहिश पाले उन सभी लोगों से मुझे जलन होती है जो अपनी मर्जी और शतार्ें पर जीते हैं, अपनी उम्मीदों को पूरा होते हुए देखते हैं। जलन होती है क्योंकि मैं वो नहीं कर पाता जो चाहता हूं। न बेहतर सोच पाता हूं, ना अच्छा लिख पाता हूं, न दूसरों की किसी भी तरह मदद कर पाता हूं। और तो और अब लगता है कि अच्छा महसूस भी नहीं कर पाता हूं। इतना सबकुछ ठस सा हो गया है कि कुछ मजा ही नहीं आ रहा है। पता नहीं क्या करने में मुझे सुकून मिलेगा। यह भी ठीक से नहीं समझ पा रहा हूं। आजकल ऐसा कुछ नहीं कर पा रहा हूं जिससे आत्मसंतोष हो। बस हर रोज सोचता हूं कि नौकरी करते-करते सड़ जा रहा हूं...। सड़ जा रहा हूं क्योंकि कुछ करने से डरता हूं। इतना कमजोर आत्मबल। धत यार कभी-कभी तो...। ऐसी असमंजस की स्थिति बनी है कि क्या बताऊं । काफी पहले काशी बाबा (काशीनाथ सिंह) की एक कहानी पढ़ी थी। उसका शीर्षक तो याद नहीं लेकिन सारांश कुछ ऐसा है-एक बाबू जिसकी जन्दिगी का सबसे सुनहरा और अहम हस्सिा दफ्तर में बाबूगीरी करते-करते ढलान पर पहुंच गया था रिटायर होने के बाद पहाड़ों पर बने अपने घर में रहने पहुंचता है। परिवार के साथ जन्दिगी गुजर रही है कि एक शाम बाबू की नजर पहाड़ों के पीछे डूबते हुए सूर्य पर पड़ती है। प्रकृति का इनता खूबसूरत हस्सिा भी है उस दिन वह यह सोचकर एक टक उसे निहारता रहा। घर में खेल रहे बच्चों को बुलाकर कहता है देखो बच्चों पहाड़ों के पीछे कुछ दिखाई दे रहा है।... हां आसमान, कहते हुए बच्चे वहां से भाग जाते हैं। फिर बाबू चूल्हे पर खाना बना रही पत्नी को बुलाता है और कहता है देखो वहां पहाड़ों के पीछे कुछ दिखाई दे रहा है। पत्नी कहती है, हां मजूदर खच्चर पर सामान लादे जा रहे हैं। बाबू गुस्से में भड़कते हुए कहता है अरे जरा ध्यान से देखो वो... पहाड़ों के पीछे। पत्नी कहती है हां वहां सूर्य अस्त हो रहा है। बाबू चहकते हुए कहता है हां देखो कितना खूबसूरत लग रहा है। पत्नी इस पर क हती है इसमंे क्या खूबसूरत, सूरज तो रोज ही डूबता है। बाबू पत्नी की बात पर झल्ला जाता है और झिड़कते हुए वहां से यह कहते हुए भगा देता है कि जन्दिगी भर चूल्हा फंूकी हो जाओ वही करो । बाबू सूरज को अस्त होने तक निहारता रहा। देर शाम को रोज की तरह साथियों की बैठकी में पहंुचा। कुछ देर कश्मश में रहने के बाद आखिर पूछता है आप लोगों ने आज शाम को कुछ देखा। साथियों ने एक सुर में पूछा क्या कोई घटना हो गई थी क्या बाऊ साहब। अरे नहीं भाई। कुछ सकुचाते हुए कहा... किसी ने आज सूरज को डूबते हुए देखा क्या? आश्चर्य से सभी एक-दूसरे का मुंह देखकर जोर से हंस दिए। इस पर बाऊ साहब गुस्से में उठकर वहां से चल दिए। उनके मन की बात कोई नहीं समझ पा रहा था। घर पहुंचे काफी देर तक गुमसुम बैठे रहे। पत्नी ने खाने पर बुलाया तो बोले भूख नहीं है तुम लोग खा लो। धीरे-धीरे कर सभी लोग पास इकठ्ठा हो गए। पूछते रहे काहे बाबू जी तबियत खराब है या हमसे कोई गलती हो गई। बाबूजी यह कहते हुए फफक पड़े कि तुम लोग मुझे समझ नहीं पा रहे हो। सब लोग मुझे पागल समझ रहे हैं। उनके साथ ही बिना कुछ समझे बूझे परिवार भी फूट-फूटकर रोने लगा। काशी बाबा की वह कहानी मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। मेरा भी तो जीवन एक कमरे से लेकर दफ्तर तक सिमटा हुआ है बल्किुल उसी बाबू की तरह। जन्दिगी के दोनों खूबसूरत पल गायब हैं। महीनों में नसीब होता है सुबह और शाम देखना।...सुबह और शाम जीवन के वह खूबसूरत लम्हे जब आप कुछ सोच सकते हैं, बंद दीवारों से निकलकर खुली हवा में सांस ले सक ते हैं। कभी-कभी सोचता हूं नौकरी छोड़ दूं। लेकिन फिर आगे यही सवाल मुह बाए खड़ा रहता है कि काम छोड़ दूंगा तो करूंगा क्या। क्या पढ़ंूगा, क्या रचूंगा। बिना पैसों के कहां घूमने जाऊंगा। बाहर इतनी बेरोजगारी है कि देखकर डर लगता है। डर लगता है कि कहीं पूरी जन्दिगी न खराब हो जाए। खैर वैसे भी क्या जी रहा हूं...यार। उधार की लगती है ये जन्दिगी। कुछ लोगों ने सलाह सन्याशी बन जाओ अब इतनी खूबसूरत दुनिया में सन्याशी तो किसी सूरत में नहीं बनूंगा। और सन्याशियों की नजर से दुनिया में दिखेगा ही क्या। जबकि मैं इसको भोगना चाहता हूं... जी भर कर। हर वो काम करना चाहता हूं जिसे करने की इच्छा मन के किसी कोने में दबी है, जिससे मैं हर दिन मुह चुराता हूं... जो मुझ पर हर रोज हसती है। एक तो साला ये नौकरी नाम की चीज बड़ी गड़बड़ है। काम का समय नर्धिारित है। हर दिन दफ्तर जाना ही जाना है। किसी दिन जब एकदम इच्छा न हो जाने की तो फोन कर कोई बहाना बनाईए। लेकिन यह भी लगता है वहां भी तंज किए जा रहे होंगे साला झूठ बोलकर छुट्टी लिया ले लिया। वैसे ऐसी अपनी आदत भी नहीं है कि झूठबोलकर छुट्टी ली जाए। मेरे साथ यह दक्कित है कि फालतू का कुछ अधिक सोचता हंू। सोचते-सोचते कहां से कहां पहुंच जाता हूं कि पूछिए मत। बता नहीं सक ता क्योंकि आप सब हंसेंगे मुझपर। अगर ऐसा ही ऊट-पटांग आप भी सोचते हैं तो खुद समझ सकते हैं। कितना बुरा से बुरा सोचा जा सकता है और कितना अच्छा से अच्छा। खैर मैं जैसा सोचता हूं उसके लिए बस उम्मीद बची है कि एक दिन कुछ बेहतर करूंगा। सालों एक शहर में दफ्न होने के बाद किसी दिन पूरी दुनिया घूमने निकलूंगा। पैदल, साइकिल, बस, ट्रेन जो भी मिलेगा बस निकल जाऊंगा देश के हर उस कोने में जिसका नाम भी नहीं सुना है। किसी दिन अपने ऊपर अहसान करूंगा...। 

परासी गांव की व्यथा

उमेश चन्द्र शुक्ल

मेरे गांव के धुर पश्चिम एक गांव परासी है। इस गांव का नाम परासी क्यों पड़ा मैं बहुत वर्षों तक नहीं जान पाया था। ऐसा भी नहीं है कि यह जाना पहचाना, देखा-सुना नहीं है।परासी से मिलते जुलते अनेक गांव मिल जाएंगे। नवल परासी, हथिया परास, परसिया, परसवां आदि। इन सबके अर्थ लगभग समानार्थी ही हैं। अभी मैं कुछ दिन पहले सोचने लगा कि ‘स्पर्श’शब्द का देशज ‘परस’ होगा। ‘परस’शब्द को पारस पत्थर से जोड़ दिया गया। वही परस पारस से बिगड़ते-बिगड़ते परसा, परासी हो गया है, किन्तु विचारणीय है कि परस से पारस हो सकता है परासी नहीं। बहुत मंथन करने के बाद मेरा मन-मस्तिष्क भतीजे के यज्ञोपवीत संस्कार के अवसर पर अपने ठीक जगह पर पहुंच गया, जब नाऊ को परसी गांव से परास (पलाश) का दंड लाने को कहा गया।तभी मुझे परासी गांव की ऐतिहासिकता का पता चला। परासी और कुछ नहीं गंवई भाषा का परास (पलाश) ही है। पलाश बिगड़ कर परास हुआ और फिर वहीं से परासी हो गया। पलाश वृक्ष की सघन बाग होने के कारण इस गांव के आदि पुरुषों ने इसका नाम परसी रख दिया होगा।पूरे जवार में परास की बागें नहीं देखने को मिलती हैं। केवल परासी गांव ही इस मामले में धनी था। वैसे परसी चौधरी और अहीरों का गांव है।दुधारू पशुओं को पालने वाले, खेतों में दिन रात एक कर पसीना बहाने वालों को परास के पेड़ों से क्या लेना देना? पलाश के अतिशय गाढ़े लाल रंग के फू ल परासी गांव के मेहनतकश लोगों को अपनी तरफ नहीं खींच पाए होंगे।दूर से जलती हुई आग का आभास कराने वाले पलाश के फूल अपनी चकाचौध की दुनिया में उन्हें रमा नहीं पाए होंगे।पलाश के फूल को ‘टेसूं’तथा ‘बंगाल किनो’ के नाम से भी जान जाता है। कालिदास से लेकर अन्य रसिक कवियों ने अपने साहित्य में इसकी खूब चर्चा की है।लोक कवि रंगपाल ने टेसू के फूलों चर्चा करके इसके महात्म्य को बढ़ाया है। ‘टेसू कचनार अनखा, न रहया विकसाय, तापर त्रिविध समीर विशासी, देत अउर धधकाय’। अन्य हिन्दी कवियों ने भी पलाश के फूल को सिर पर बिठाया है। वैसे मैं कहा भटक गया, सहित्य के उदधि में डुबकी लगाना आसान नहीं है? हां एक बात है, परासी पहले भी सम्पन्न था आज भी है। गोरस की धारा लम्बे समय से इस गांव में बहती रही है। पत्येक घरों के धन्य-कुठार अनाजों से भरे रहते हैं। दुख की बात है कि परसी केवल पलाश के वृक्षों से खाली हो गया है। पलाश की सघन बाग उजड़ चुकी है। लाल रंगे के पलाश के फूल अब यहां मधुमास में नहीं खिलते हैं। आखिर कैसे पलाश के सघन वन उजड़ गए? ब्राह्म्ण कुल में जन्म लेने वाले बालक परासी से लाए गए दंड से यज्ञोपवीत के अवसर पर द्विज बनते थे।नाइयों के लिए परासी से दंड लाना सुगम था। परासी संकट मोचन गांव था। शादी-विवाह, यज्ञ परोजन में परासी ही दूध दही देकर लोगों की इज्जत रखता था। परास के चौड़े पत्तों से भोजन की थाली बनती थी। यहीं की बनी पतरी अतिथियों की सेवा के लिए तत्तपर रहती थी। आज परसाी गांव की तरह परास शब्द के नाम वाले कितने गांव परास शब्द की सार्थकता बचाए हुए हैं, कितने खो दिए हैं हमे पता नहीं। लेकिन अपने गांव के निकट का पड़ोसी गांव परासी अपने नाम की सार्थकता खोता जा रहा है। अब वहां न तो परास के फूल आग का आभास कराते हैं और नही गोरस की सुगन्ध लोगों को परासी की तरफ खींचती है।  दुख और चिंता का विषय यह है कि परासी को अब किस आधार पर पलाशों का गांव कहा जाए? एक परासी ही नहीं  बहुतेरे गांव अपने नाम की ऐतिहासिकता खो चुके हैं। ऐसे गांव का नाम करण  करने वाले उन पूर्वजों की अत्मा पर क्या गुजर रही होगी। यह एक बड़ा सवालिया निशानन खड़ा करता है।  

Monday 19 January 2015

भारतीय मानस का भगवाधारी  कॉमरेड

स्कन्द शुक्ल


कहने को तो यह देश किसानों का है और देश की एक बड़ी आबादी की जीविका का आधार भी खेती है। लेकिन दु:खद है कि आज तक किसानों को देश की सियासत में वह भागीदारी नहीं मिली जिसके वे हकदार हैं। हां एक दौर आया था जब किसानों का एक नेता प्रधानमंत्री तक बना लेकिन उनकी आवाज लम्बे दौर तक बुलंद न रह सकी। तुलनात्मक रूप से आजाद भारत में भी लघु व सीमांत किसानों की वही दशा है जो गुलामी के दिनों में हुआ करती थी। लेकिन तब उनकी आवाज उठाने के लिए एक नहीं अनेक स्वर थे। उन्हीं में एक थे स्वामी सहजानंद सरस्वती। फरवरी 1889 में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में जन्मे स्वामी सहजानंद ने न सिर्फ स्वतंत्रता आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई बल्कि उसी दरमियान बेहद सशक्त किसान आन्दोलन खड़ा किया। देश-दुनिया में उन्हें एक महान किसान नेता के रूप में ख्याति मिली।
    भूमिहार परिवार (वह ब्राह्मण जो खुद को कर्मकाण्डों से अलग रखते हैं) में जन्मे स्वामी सहजानंद सरस्वती के बचपन का नाम नवरंंग राय था। बेहद मुफलिसी में गुजरे नन्हें नवरंग के जीवन से तीन वर्ष की आयु में ही मां का साया भी उठ गया। बचपन बेहद मुश्किलों में गुजरा। ब्राह्मण प्ररिवार और जिज्ञासु प्रवृत्ति का होने के कारण धर्मग्रन्थों के प्रति विशेष झुकाव रहा। युवा अवस्था में ही उन्होंने गीता, वेद-पुराण का वृहद अध्ययन किया। 18 वर्ष की उम्र में पत्नी के गुजर जाने के कारण सन्यास व मोक्ष जैेसे विचार की तरफ झुकाव हुआ और एक दिन अचानक स्कूल छोड़कर सांस्कृतिक नगरी वाराणसी पहुंच गए। इस दौरान खूब भ्रमण और तपस्या की और खुली आंखों से दुनियावी छद्म भी देखा। यही वह दौर था जब वे नवरंग राय से स्वामी सहजानंद सरस्वती बने और सन्यासियों में सबसे ऊंचा दर्जा हासिल कर दण्ड स्वामी हुए। हालांकि उस समय भूमिहारों को दण्ड स्वामी का दर्जा नहीं मिलता था। लेकिन उन्होंने अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और वृहद ज्ञान के कारण यह दर्जा हासिल किया। स्वामी जी कभी भी कर्मकाण्डी अथवा जातीय अस्मिता में बंधकर नहीं रहे। आजीवन एक सन्यासी होने के बावजूद खुद को राजनीतिक व सामाजिक आन्दोलनों से अलग न रख सके। पहले सामाजिक रुढि़यों के विरोध में खड़े हुए और बाद में स्वतंत्रता संग्राम व किसानों के उत्थान में अपना पूरा जीवन गुजार दिए। 5 दिसम्बर 1920 स्वामी जी के जीवन का अहम पड़ाव साबित हुआ। इसी दिन पटना में गांधी जी से मिले, उनसे घंटों धर्म औरा राजनीति पर चर्चा की। यहीं बापू के विचारों से प्रभावित होने के बाद अपनी सभी प्राथमिकताओं को दरकिनार कर कांग्रेस जुड़े और ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
      1930 में नमक कानून तोड़ने और सविनय अवज्ञा आन्दोलन में हिस्सा लेने के कारण जेल गए। वापस लौटे तो किसानों की पीड़ा महसूस करते हुए जमीदारों व सामंतों के खिलाफ हल्ला बोला। जिनके समर्थन में कांग्रेस की एक बड़ी लॉबी थी। स्वामी जी का कहना था कि कांग्रेसी केवल गांधी जी का मौखिक समर्थन करते हैं, लेकिन उनके आचरण को व्यवहार में नहीं उतारते। तमाम अन्तरविरोधों के बावजूद स्वामी जी ने उसी दौर में किसानों को संगठित कर पश्चिमी पटना जिले से सामंतों और जमीदारों के खिलाफ समानांतर संघर्ष शुरू किया। किसान सभा के रूप में खड़ा हुआ यह संगठन आगे चलकर न केवल बिहार तक सीमित रहा बल्कि इंदुलाल याज्ञिक व आचार्य एनजी रंगा के सहयोग से अखिल भारतीय किसान सभा के रूप में स्थापित हुआ।
    आजादी के आन्दोलन के दौरान ही एक तरफ जहां डॉ. भीमराव राव अम्बेडकर दलितों के हित को लेकर उन्हें संगठित कर उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे थे वहीं स्वामी सहजानन्द सरस्वती का किसानों को संगठित कर एक समानान्तर आन्दोलन खड़ा करना तमाम लोगों को नागवार गुजरा। कुछ लोगों ने तब इसके औचित्य पर भी सवाल उठाए। इसका परिणाम हुआ कि 1936 में अखिल भरतीय कांग्रेस कमेटी की कार्यकारिणी समिति ने अपने एक प्रस्ताव द्वारा सभी किसानों एवं मजदूरों के वर्ग संघर्ष पर पांबदी लगा दी। पाबंदी के विरोध में स्वामी सहजानंद, सुभाषचन्द्र बोस, नारीमैन, किशोरी प्रसन्न सिंह आदि ने प्रदिवाद मनाकर विरोध किया। प्रतिवाद विरोध में शामिल किसानों-मजूदरों पर कांग्रेस कार्यकारिणी ने एक प्रस्ताव लाकर कांग्रेस की किसी भी तरह की सदस्यता पर तीन साल तक का प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन जमीदारों व सवर्णों के विरोध में शुरू हुए ये आन्दोलन आजादी के आन्दोलन को भटकाने की कोई प्रायोजित कोशिश नहीं बल्कि एक स्वाभाविक प्रतिरोध थे। यह न कांग्रेसी समझने के लिए तैयार थे न ही यथस्थितिवादी। हालांकि स्वामी जी ने कांग्रेस से मतभेद के मुद्दे पर कहा था कि,'बेशक हमारा और उनका मतभेद बहुत बातों पर मौलिक है। लेकिन यह हमारा भीतरी मामला है। इसका संबंध केवल हमसे और उनसे है। हम इसे वहां तक नहीं ले जा सक ते जहां देश की स्वतंत्रता खटाई में पड़ जाए।'
   बाबा साहब और स्वामी जी दोनों का संघर्ष वर्ग विशेष को लेकर तब भी उतना ही प्रासंगिक था जितना कि आज। लेकि न वर्ग विशेष के नायक के रूप में जो प्रतिष्ठा बाबा साहब को मिली वह स्वामी जी को क भी न मिल पाई।

किसान आन्दोलन और स्वामी सहजानंद

कोई भी जनवादी आन्दोलन तब तक नहीं खड़ा किया जा सकता जब तक कि वहां के समाज की संस्कृति और परिवेश को आन्दोलनधर्मी एक व्यापक समझ के साथ अपने भीतर न उतार लें। मार्क्स ने कहा है कि  'हर देश कि भौगोलिक, सामाजिक व सांस्कृतिक स्थितियां विशिष्ट होती हैं उसी के अनुरूप उस देश के क्रांति का मॉडल भी बनता है।' स्वामी सहजानंद सरस्वती को इस बात का इल्म था। भारतीय मूल्यों और संस्कारों में पले बढ़े स्वामी को आम आदमी का दर्द किताबों से नहीं बल्कि उनके बीच रहते हुए महसूस हुआ। उन्होंने उन संभ्रांत कांग्रेसी नेताओं पर कभी नहीं यकीन किया जो जमीदारों और सामंती लोगों के पक्ष में होने के साथ ही अंग्रेजों के चाटुकार थे। जमीदारों से किसानों को मुक्ति दिलाने के लिए स्वामी जी ने किसान सभा का गठन किया। जिसके बैनर तले गांवों में घूमघूमकर किसानों को जागरूक किया। उन्हें सभा का सदस्य बनाकर जमीदारों का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। जमीदारों को देने वाले सूद और नजरानों को कम करने की मांग की। 1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ तो स्वमी ने कांग्रेस से अपना संबंध विच्छेद कर लिया। उनका मानना था कांग्रेस जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनी थी, वह सिद्ध हो चुका है अब इसे भंग कर देना चाहिए। देश में समाजवाद की स्थापना के लिए वामपंथियों समेत अन्य संगठनों के साथ उन्होंने एक सम्मेलन आयोजित किया और उसकी अध्यक्षता खुद की। उस सम्मेलन को देश-दुनिया के बुद्धिजीवियों ने काफी सराहा। स्वमी जी का देहावसान 1950 में हुआ। 'किसान कैसे लड़ते हैं?', 'किसान क्या करें' व 'महारुद्र का महाताण्डव' जैसी स्वरचित विचारोत्तेजक पुस्तकें स्वामी जी की बौद्धिक क्षमता का प्रमाण हैं।

अपनी ही जाति के विरोध में खड़ा सन्यासी

ब्राह्मणों के भूमिहारों के प्रति हीन भावना से स्वामी सहजानंद आहत थे। उनके जातीय प्रेम के शुरुआती कारणों के बारे में पं. राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है, 'पुरातन युग की पुरानी संस्कृत पुस्तकों तथा योग-वैराग्य के अतिरिक्त और भी दुनिया है इसका स्वामी को पता न था। अखबारों से उनका कोई वास्ता न था। हां, जब भूमिहारों का पता लगा कि एक प्रतिभापूर्ण सन्यासी उनकी जाति में भी है, तो वे 1914 की भूमिहार ब्राह्मण सभा में पकड़ ले गए। उस सभा में स्वामी जी ने कहा कि संस्कृत विद्या का हमें प्रचार करना चाहिए । शर्म की बात है कि हम उससे उदास रहे और जर्मनी जैसे देश हमारी हमारी विद्या का पठन-पाठन करते रहे हैं। स्वामी के इस व्याख्यान से भूमिहार प्रभावित हुए और उन्हें अपनी हर सभाओं में आमंत्रित करने लगे। लेकिन उनका यह मंतव्य कतई न था कि वह केवल एक जाति विशेष के लिए काम करें। उन्होंने सिर्फ भूमिहारों के प्रति ब्राह्मणों के तिरस्कार को तथ्यों और तर्कों के आधार पर खत्म करने की कोशिश की।' स्वामी सहजानंद के जीवनीकार वाल्टर हाउजर ने लिखा है कि 1927 में सबसे पहले यादव किसानों ने मसौढ़ी के भूमिहार जमीदारों के खिलाफ चल रहे संघर्ष का नेतृत्व करने के लिए स्वामी सहजानंद सरस्वती को आमंतत्रित किया था। इससे साफ जाहिर होता है कि स्वामी जी किसानों के आन्दोलनों के लिए कितने प्रतिबद्ध और अपने ही जाति के जमीदारों की शोषणवादी मानसिकता के सख्त खिलाफ थे। वहीं दूसरी तरफ बक्सर में जब कांग्रेस ने कौंसिलों का बहिष्कार किया उस दौरान हथुआ के राजा जो कि खुद भूमिहार थे, कौंसिल के लिए खड़े हुए थे। कांग्रेस ने उनके विरोध में एक अनपढ़ धोबी को खड़ा किया। जिसके समर्थन में स्वामी जी ने भी खुद प्रचार किया। उन्होंने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि- 'राजा-महराजा से हमारा धोबी कहीं अच्छा है'। उस चुनाव  में धोबी की जीत हुई थी। 1929 में स्वामी जी ने एक बड़े हित के लिए भूमिहार ब्राह्मण सभा का किसान महासभा में विलय कर दिया। ऐसे में एक जाति विशेष के दायरे में स्वामी सहजानंद का मूल्यांकन कैसे तर्क संगत हो सकता है? वैसे भी स्वामी सहजानंद की नजर में किसानों की कोई जाति नहीं होती।