‘कटुओं से हार गए...’
मेरे गांव के पड़ोस में तीन मुस्लिम बाहुल्य गांव हैं-जय-विजय, ड्यूहारी और अमानाबाद। उन गांवों के होने की मौजूदगी मुझे आज तक पता नहीं चली। इतने शांत और सहज हैं वहां के लोग। वैसे बचपन में ड्यूहारी को लेकर मेरे मन में एक अजीब सा डर बैठा दिया गया था। वही डर जो हिन्दुओं के बच्चों में पता नहीं कहां-कहां से घर कर जाता है, कि मुस्लिम बहुत कट्टर होते हैं और कसाई भी उसी सम्प्रदाय से होते हैं। घर में, पड़ोस में और बकरीद जैसे त्योहारों पर जानवरों को कटते हुए देखना और इस क्रिया में ही आए दिन शरीक होने के कारण जिन स्थितियों में उनकी परवरिश होती है उनसे वे पैदाइशी ‘हिंसक’ और ‘कट्टर’ हो जाते हैं। यह मेरे और मेरे जैसे बच्चों के मन के कोने में बचपने में भरा हुआ भयानक डर था और है। हालांकि ‘जय-विजय’ के बच्चों के साथ हम क्रिकेट खेलते थे और गाली-गलौच के साथ बेइमानी कर अक्सर जीतने की जुगत करते रहते। उनसे हारने की शर्मिंदगी सही नहीं जाती थी और गांव के ‘बड़ों’ और पड़ोसी गांव वालों के तानें सुनना तो मुश्किल हो जाता था। ‘कटुओं से हार गए...’ यह वाक्य महज पराजय का बोध नहीं कराता है। दरअसल यह हमारे सम्पूर्ण संकीर्ण मानसिक विकास का प्रतिनिधि वाक्य है जो हमें यह बताता है कि हम पड़ोसी गांव से नहीं बल्कि पाकिस्तान से हारे हैं। यही वाक्य हमें बताता है कि मुस्लिमों से कितने कमजोर हैं, एक दिन जब वे हमसे लड़ने आएंगे तो हम उनके सामने टिक नहीं पाएंगे। यही वाक्य हमें बताता है कि एक दिन वे हमसे ‘श्रेष्ठ’ हो जाएंगे और हम उनके ‘अधीन’ होंगे और यह भी कि ‘उनसे’ फासला रखो नहीं तो वे आपके भीतर तक घुस जाएंगे। यही वह वाक्य था जिसमें बंटवारे का बीज तत्व निहित था। यही वह वाक्य है जिसने हिन्दुओं के जेहन में इस हिंसक सोच को जिंदा रखा है कि आज नहीं चेते तो अपने ही देश में अल्पसंख्यक हो जाओगे। भारतीय जनता पार्टी इन्हीं तीन शब्दों की पैदाइश है। यही वाक्य है जिसने प्रवीण तोगड़िया, साध्वी प्राची, साक्षी महराज, गिरिराज सिंह और योगी आदित्यानाथ जैसों को डराए हुए लोगों के बीच ‘स्थापित’ किया। यही एक वाक्य है जिसने अब तक हुए हजारों साम्प्रदायिक दंगों में लाखों जाने ले लीं। यही वह घृणित वाक्य है जो बताता है मुस्लिम लड़कियों से बलात्कार करने पर हजारों ‘पाप’ धुल जाते हैं। यही वह वाक्य है जो हमारे भीतर हिंसा और नफरत के बीज रोपता है और हमें अपनों से प्रेम करने के लिए रोकता है।
खैर, सोमवार और गुरुवार को लगने वाली जिस मंडी से मैं सब्जी खरीदने बाजार जाता था उसके ठीक पहले ड्यूहारी से होकर गुजरना पड़ता है। ड्यूहारी में एक मदरसा है और उसमें बड़ी संख्या में बच्चे पढ़ते हैं। उस मदरसे को लेकर मेरे अंदर एक अजीब सा डर बैठा था। शाम को बाजार से आते-जाते वक्त मैं अपनी साइकिल की स्पीड आंख मूंद कर बढ़ा देता था। मुझे लगता था कोई मदरसे से मेरा पीछा कर रहा है। मदरसे के मेस से आने वाली खाने की खुशबू मुझे मीट-मछली वाली लगती थी जबकि मैं शाकाहारी हूं। एक रोज बाजार से लौटते वक्त ठीक मदरसे के पास मेरी साइकिल की चेन उतर गई। वैसे तो वहां बाहर बच्चे जल्दी दिखाई नहीं देते थे लेकिन उस दिन आठ-दस बच्चे पंजे से ऊपर चढे़ पायजामा, कुर्ता और टोपी में क्रिकेट खेल रहे थे। उन्हें देखकर मेरी हालत खराब हो गई। साइकिल की चेन बुरी तरह से उलझ गई थी। काफी देर तक मैं परेशान रहा लेकिन चेन नहीं चढ़ी। कुछ देर बाद मदरसे से एक शिक्षक बाहर निकले उन्होंने मुझे परेशान देखा तो खेल रहे कुछ बच्चों को मेरी मदद करने के लिए कहा। वे आए और थोड़ी मशक्कत के बाद चेन चढ़ा दिए। उनमें से एक बच्चे ने मुझसे पूछा क्रिकेट खेलोगे। मैं लेट होने का बहाना बनाकर वहां से उटपटांग सोचते हुए निकल लिया। लेकिन उसके बाद से मुझे ड्यूहारी से गुजरने में कभी डर नहीं लगा। मदरसे से आती हुई खाने की खुशबू पर भी कभी ध्यान नहीं गया।
इन दिनों बताया जाता है कि कई मदरसों में मुस्लिम लड़कों को ‘प्रशिक्षित’ किया जा रहा है। उन मदरसों को बाहर से काफी ‘मदद’ मिल रही। तकरीरों में लोगों को उकसाया जाता है। यह एक नए तरह का उन्माद है और समुदाय विशेष में डर पैदा कर उन्हें लामबंद करने की कोशिश हो रही है। यह बहुत ही भयावह है। आखिर मेरे बाल मन में मदरसे को लेकर जो अंजाना सा डर था वह कहां से आया? जबकि उस मदरसे और उन मुस्लिम बाहुल्य गांवों में आज तक मैंने छिटपुट विवाद की भी कोई खबर नहीं सुनी इसके बावजूद मेरे जेहन में उन ग्रामीणों की छवि बहुत ही खतरनाक बनी हुई थी। यह गंभीर मसला है कि आखिर हमारे भीतर इतना डर कहां से भरा जा रहा है और इसका फायदा कहां-कहां लिया जा रहा है।
अजीब बात है हम उनके प्रति दुर्भावना रखते हैं और अपेक्षा करते हैं कि वे हमारे सामने याचना की मुद्रा में रहें। हमें बर्दाश्त नहीं है कि वे हमारे शिक्षक बनें, किसी सम्मानित ओेहदे पर जाएं और भले ही भूखों मर जाएं पर देश के प्रति समर्पित रहें। गजब की विडम्बना है भाई। मुस्लिाम समुदाय की एक बड़ी आबादी की जीविका खाड़ी देशों में कमाई से चल रही है, लेकिन यहां वे उनके समर्थन में कुछ कह देंगे तो उनकी सौ पुस्तों को गरियाते हुए उनकी फ्रेमिंग करने में पीछे नहीं रहेंगे। मथुरा में इतनी भयावह घटना हो जाती है और कुछ दिनों में सब ‘सामान्य’ हो जात है, मान लीजिए यह घटना किसी मदरसे की होती तो?
मुझे नहीं पता कि जय-विजय, ड्यूहारी और अमानाबाद के कितने प्रतिशत ग्रामीण सराकरी विभाग में काम करते हैं (फिलहाल मैं व्यक्तिगत तौर पर किसी को नहीं जानता हूं) , कितने परिवारों की निर्भरता विदेशों की कमाई पर आश्रित है और कितने खेती कर अपनी जीविका चला रहे हैं? पर एक बात है उनकी जिन्दगी जैसे भी कट रही है और तमाम सामाजिक उपेक्षाओं के बावजूद वे अपने काम में रमे हुए हैं। पर धैर्य तो हर किसी का जवाब दे जाता है। आखिर इतनी नफरत कहां से आ रही है यार! भाई, प्रेम करो जिंदगी शहद हो जाएगी।
खैर, सोमवार और गुरुवार को लगने वाली जिस मंडी से मैं सब्जी खरीदने बाजार जाता था उसके ठीक पहले ड्यूहारी से होकर गुजरना पड़ता है। ड्यूहारी में एक मदरसा है और उसमें बड़ी संख्या में बच्चे पढ़ते हैं। उस मदरसे को लेकर मेरे अंदर एक अजीब सा डर बैठा था। शाम को बाजार से आते-जाते वक्त मैं अपनी साइकिल की स्पीड आंख मूंद कर बढ़ा देता था। मुझे लगता था कोई मदरसे से मेरा पीछा कर रहा है। मदरसे के मेस से आने वाली खाने की खुशबू मुझे मीट-मछली वाली लगती थी जबकि मैं शाकाहारी हूं। एक रोज बाजार से लौटते वक्त ठीक मदरसे के पास मेरी साइकिल की चेन उतर गई। वैसे तो वहां बाहर बच्चे जल्दी दिखाई नहीं देते थे लेकिन उस दिन आठ-दस बच्चे पंजे से ऊपर चढे़ पायजामा, कुर्ता और टोपी में क्रिकेट खेल रहे थे। उन्हें देखकर मेरी हालत खराब हो गई। साइकिल की चेन बुरी तरह से उलझ गई थी। काफी देर तक मैं परेशान रहा लेकिन चेन नहीं चढ़ी। कुछ देर बाद मदरसे से एक शिक्षक बाहर निकले उन्होंने मुझे परेशान देखा तो खेल रहे कुछ बच्चों को मेरी मदद करने के लिए कहा। वे आए और थोड़ी मशक्कत के बाद चेन चढ़ा दिए। उनमें से एक बच्चे ने मुझसे पूछा क्रिकेट खेलोगे। मैं लेट होने का बहाना बनाकर वहां से उटपटांग सोचते हुए निकल लिया। लेकिन उसके बाद से मुझे ड्यूहारी से गुजरने में कभी डर नहीं लगा। मदरसे से आती हुई खाने की खुशबू पर भी कभी ध्यान नहीं गया।
इन दिनों बताया जाता है कि कई मदरसों में मुस्लिम लड़कों को ‘प्रशिक्षित’ किया जा रहा है। उन मदरसों को बाहर से काफी ‘मदद’ मिल रही। तकरीरों में लोगों को उकसाया जाता है। यह एक नए तरह का उन्माद है और समुदाय विशेष में डर पैदा कर उन्हें लामबंद करने की कोशिश हो रही है। यह बहुत ही भयावह है। आखिर मेरे बाल मन में मदरसे को लेकर जो अंजाना सा डर था वह कहां से आया? जबकि उस मदरसे और उन मुस्लिम बाहुल्य गांवों में आज तक मैंने छिटपुट विवाद की भी कोई खबर नहीं सुनी इसके बावजूद मेरे जेहन में उन ग्रामीणों की छवि बहुत ही खतरनाक बनी हुई थी। यह गंभीर मसला है कि आखिर हमारे भीतर इतना डर कहां से भरा जा रहा है और इसका फायदा कहां-कहां लिया जा रहा है।
अजीब बात है हम उनके प्रति दुर्भावना रखते हैं और अपेक्षा करते हैं कि वे हमारे सामने याचना की मुद्रा में रहें। हमें बर्दाश्त नहीं है कि वे हमारे शिक्षक बनें, किसी सम्मानित ओेहदे पर जाएं और भले ही भूखों मर जाएं पर देश के प्रति समर्पित रहें। गजब की विडम्बना है भाई। मुस्लिाम समुदाय की एक बड़ी आबादी की जीविका खाड़ी देशों में कमाई से चल रही है, लेकिन यहां वे उनके समर्थन में कुछ कह देंगे तो उनकी सौ पुस्तों को गरियाते हुए उनकी फ्रेमिंग करने में पीछे नहीं रहेंगे। मथुरा में इतनी भयावह घटना हो जाती है और कुछ दिनों में सब ‘सामान्य’ हो जात है, मान लीजिए यह घटना किसी मदरसे की होती तो?
मुझे नहीं पता कि जय-विजय, ड्यूहारी और अमानाबाद के कितने प्रतिशत ग्रामीण सराकरी विभाग में काम करते हैं (फिलहाल मैं व्यक्तिगत तौर पर किसी को नहीं जानता हूं) , कितने परिवारों की निर्भरता विदेशों की कमाई पर आश्रित है और कितने खेती कर अपनी जीविका चला रहे हैं? पर एक बात है उनकी जिन्दगी जैसे भी कट रही है और तमाम सामाजिक उपेक्षाओं के बावजूद वे अपने काम में रमे हुए हैं। पर धैर्य तो हर किसी का जवाब दे जाता है। आखिर इतनी नफरत कहां से आ रही है यार! भाई, प्रेम करो जिंदगी शहद हो जाएगी।